नेमनूक पर पलने वाले खबरची अकेले नहीं

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मीडिया की दुनिया की अच्छी-बुरी खबरें जारी करने वाले भड़ास मीडिया के जरिये कुछ लोगों ने मप्र के उन पत्रकारों को लांछित करने की कोशिश की है ,जो परिवहन विभाग की और से बांटे जाने वाले नेमनूक से अपना जेबखर्च चलाते हैं। नेमनूक का मतलब धर्मस्व विभाग में पुजारियों को दी जाने वाली राशि होता है। ये नाममात्र की होती है ,लेकिन रियासतों के जमाने से लेकर अबतक बांटी जा रही है।
सब जानते हैं कि आबकारी,सिंचाई, लोनिवि और परिवहन जैसे विभागों में पत्रकारों के साथ ही नौकरशाहों,जन= प्रतिनिधियों को नेमनूक वितरित किये जाने की परम्परा है। ऊपरी कमाई करने वाले विभागों में नेमनूक बाँटने के काम को लेकर कोई दूसरा काम ईमानदारी से नहीं होता। नेमनूक राजनितिक दलों ,दलों के जिले से लेकर प्रदेश स्तर के पदाधिकारियों , भाप्रसे ,भापुसे और राप्रसे के अफसरों के साथ ही सिपाही स्तर तक समान रूप से वितरित किया जाता है। मुझे इसका पता इसलिए है क्योंकि आज से कोई तीस साल पहले मेरे एक परिचित पुलिस इंस्पेक्टर परिवहन महकमे में प्रतिनियुक्ति पर गए थे और उन्होंने मुझे उस समय 300 रूपये का नेमनूक दिया था । उस समय मेरा वेतन कोई 6 हजार रूपये हुआ करता था।
पहले नेमनूक हमारे जैसे आर्थिक रूप से कमजोर पत्रकारों पर अनुकम्पा कर दिया जाता था। लेकिन बाद में पत्रकारों के लिए ये नियंत व्यवस्था बन गयी। पत्रकार इतने कम या ज्यादा नेमनूक के बदले र्भ्ष्टाचार की और से अपनी आँखें बंद कर लें ऐसा कभी नहीं हुआ। मुझे तो पहली बार पता चला कि नेमनूक पत्रकार की हैसियत के हिसाब से तय होता थ। आजकल ये नेमनूक बंद है क्योंकि अब प्रदेश में नयी सरकार ने परिवहन चौकियां बंद करा दीं हैं। ऐसे में नेमनूक ले चुके पत्रकारों के नामों की फेहरिश्त जारी करने का एकमात्र मतलब पत्रकारों का मान-मर्दन करना है। । मुझे ये स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि पत्रकार नेमनूक लेते है। मैंने भी लिया है लेकिन मेरे जैसे तमाम पत्रकारों को आज भी नेमनूक देने वाले शायद शक्ल से नहीं पहचानते ,क्योंकि ये काम करने वाले सभी हाथ अदृश्य होते हैं। अंगूठा छाप होते हैं ,उनका लिखने -ोपढ़ने से कोई वास्ता नहीं होता। वे केवल एजेंट होते है। परिवहन महकमे के ,केंद्रीय और राज्य के मंत्रियों के। ये नेताओं और अधिकारीयों का हिस्सा तो हड़प नहीं पाते किन्तु पत्रकारों के नेमनूक में भांजी जरूर मार देते थे।
पत्रकारों को नेमनूक बाँटने की प्रथा सनातन है । हर सत्ता इसका पालन करती है ,हाँ सभी के तरीके अलग-अलग होते हैं। कोई नेमनूक को नजराना कहता है तो कोई सप्रेम भेंट ,कोई इसे शुकराना कहता है तो कोई बख्शीस। लेकिन ये किसी का जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है । ये सौ फीसदी अनुकम्पा है। ये आपको नगद सम्मान के रुप में भी मिल सकती है । आवासीय भूखंड के रूप में भी । कार के रूप में भी और उपहार के रूप में भी। चिकित्सा सहायता के रूप में भी मिल सकती है और पर्यटन पैकेज के रूप में भी। विज्ञापन के रूप में मिल सकती है या आपकी किताब खरीद कर । ये मुगलों के समय भी मिलती थी और अंग्रेजों के समय भी । कांग्रेस के समय भी मिलती थी और भाजपा के समय में भी।
मेरा एक पत्रकार के रूप में लंबा तजुर्बा है इसलिए मुझे ये कहने में कोई ऐतराज नहीं है कि आज का समाज संतों का समाज नहीं है । संतों को दी जाने वाली बख्शीस की भी एक फेहरिश्त है। नौकरशाहों की भी है और माननीय नेतागणों की भी। सब मिल-बांटकर श् प्रसादम श् पाते है । कोई दूध का धुला नहीं है । न मै ,न मेरी बिरादरी । न नेताओं का कुनवा और न नौकरशाहों का कुनवा। यदि ऐसा होता तो नौकरशाहों के घर से 300 करोड़ की नगदी न मिलती, यदि ऐसा होता तो किसी नौकरशाह,किसी अखबार मालिक के घरों पर छापा न पड़ता ,यदि ऐसा होता तो अकेले तनख्वाह पाने वाले तमाम खबरची ,नेता और अफसर फार्म हाउसों ,खदानों ,क्रेशरों के मालिक न होते। घर में दीपावली पर आने वाली आतिशबाजी और मिठाई भी एक तरह का नेमनूक है भाई ! यानि श् हरि अनंत ह्री कथा अनंता श् है। किसी ने खुन्नस निकलने के लिए नेमणूक पाने गरीब पत्रकारों के नाम उजागर कर दिए ,लेकिन उसने अपनी माँ का इतना दूध नहीं पिया था कि वो इसी नेमनूक पाने वाले नेताओं,विधायकों और नौकरशाहों के नामों की सूची भी भड़ास -4 को दे पाता ।
जिन महानुभावों का नाम इस फेहरिश्त में नहीं है वे ,आप मान लीजिये कि सूचीबद्ध पत्रकारों से दस गुना ज्यादा नेमनूक पा रहे हैं। इसलिए दुग्ध स्नान करने का दावा करने वाले सभी श् बगुला – भगत श् हैं । इस सूची में मेरा नाम भी शुमार है लेकिन ढंग से नहीं है । मुझे अफसोस है कि मेरा मूल्यांकन न आजतक किसी सरकार ने सही किया और न नेमनूक बाँटने वालों ने ,लेकिन मैं न ग्लानि से भरा हूँ और न मैंने अपना श् सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी श् अपना चेहरा बदला ह। मै 2016 से पत्रकारिता की दुनिया को अलविदा कह चूका हूँ। एक स्वतनत्र लेखक हूँ । अपने पाठकों से एक रुपया माँगता हूँ और हजारों रूपये पा रहा हूँ। मेरा डंका कल भी बज रहा था,आज भी बज रहा है और बाखुदा कल भी बजेगा ।
– राकेश अचल, ग्वालियर (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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